
कोल्हापुरी चप्पलें महाराष्ट्र के लिए सिर्फ पहनने की चीज़ या सांस्कृतिक प्रतीक नहीं हैं, बल्कि इनका यहां की मिट्टी और समाज से गहरा ताल्लुक है. इन चप्पलों का इतिहास कई सदियों पुराना है और ये शाहू महाराज के शासनकाल में ख़ास तौर पर मशहूर हुईं.
आज कोल्हापुरी चप्पलों के व्यवसाय में अलग-अलग जातियों और समुदायों के लोग जुड़े हुए हैं, लेकिन असली कोल्हापुरी चप्पलें बनाने वाले ज़्यादातर लोग चमड़े का काम करने वाले दलित समुदाय से आते हैं.
यहां के कारीगरों ने इस बात पर नाराज़गी जताई है कि ‘प्राडा’ के शो में इन चप्पलों का इस्तेमाल तो हुआ, लेकिन कोल्हापुर का ज़िक्र तक नहीं किया गया.
लोगों की नाराज़गी
कोल्हापुर के सुभाष नगर की निवासी प्रभा सातपुते ज़ोर देकर कहती हैं, “ये चप्पलें चमड़े के कारीगरों की कड़ी मेहनत से बनती हैं. ये यहीं कोल्हापुर में तैयार की जाती हैं, इसलिए इनका नाम कोल्हापुर के नाम पर ही रखा जाना चाहिए.”
सुबह रसोई का काम ख़त्म करने के बाद प्रभा सातपुते अपने घर के सामने चमड़े के एक बड़े टुकड़े को मनचाहे आकार में काट रही थीं. वह कई सालों से यह काम कर रही हैं.
प्रभा कहती हैं, “अपनी मेहनत का फल उसी को दो जो उसका हक़दार है. बिना वजह दूसरों की मेहनत का फ़ायदा मत उठाओ.” उनकी बातों से चप्पलों के प्रति उनका विशेष प्रेम साफ़ झलकता है.
केवल प्रभा ही नहीं, प्राडा की ख़बर सुनने के बाद कोल्हापुर के कई लोगों ने भी इसी तरह नाराज़गी जताई है.
यहां किसी भी व्यक्ति से बात करिए, चाहे वो घर में हों, चाय की दुकान पर या वड़ा पाव के ठेले पर, उनकी बातों में उनकी नाराज़गी साफ नज़र आती है. और यह स्वाभाविक भी दिखता है, क्योंकि कोल्हापुर का इन चप्पलों से एक लंबा और गहरा रिश्ता रहा है.