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मीर जाफ़र के ‘विश्वासघात’ पर उनके वंशज क्या कहते हैं?

मुर्शिदाबाद के हज़ारदुआरी और इमामबाड़ा इलाक़े से कुछ आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे एक बड़ा-सा गेट नज़र आता है. उसकी लाल ईंटें कई जगह दीवारों से निकली हुई हैं और कई जगह टूट कर नीचे गिर गई हैं.

गेट में दाख़िल होने के बाद वहां एक पुराना नीले रंग का बोर्ड दिखाई देता है. ऐसा महसूस होता है जैसे हम किसी टाइम मशीन के ज़रिए अतीत में 268 साल पहले पहुंच गए हों.

मेरी आंखों के सामने वह तस्वीर किसी रील की तरह चलने लगती है. साल 1757 में जुलाई की पहली और दूसरी तारीख़ को, जब इसी दरवाज़े से एक हताश युवा क़ैदी को भीतर लाया गया था.

उसके पास कई उपाधियां थीं. उसे आठ दिन पहले तक कभी मंसूर-उल मुल्क तो कभी हैबत जंग की उपाधि से संबोधित किया गया था.

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